ऐसा कहा जाता है कि एक बार किसी भद्र देश के राजा ने जिनका नाम अश्वपति था। उन्होंने अपनी पत्नी सहित संतान प्राप्ति के लिए सावित्री देवी का विधि पूर्वक व्रत तथा पूजन किया था। जिसके बाद उनको पुत्री होने का वर प्राप्त हुआ था।
सर्वगुणों से संपन्न देवी सावित्री ने ही पुत्री के रूप में अश्वपति राजा के घर में कन्या के रूप में जन्म लिया था। जब सावित्री देवी कन्या के रूप में बड़ी हो रही थी। तब उनको उनके पिताजी ने उनके युवा होने पर कहा था कि अब वह समय आ गया है। जिसका मुझे इंतज़ार था। सावित्री समझ नहीं पाई थी अश्वपति क्या कह रहे हैं।
जब तक वह बात को समझती तब तक उनके पिता जी ने अपने मंत्री के साथ सावित्री को अपना पति चुनने के लिए भेज दिया था। सावित्री जब अपने मन के अनुकूल पति का चयन कर लौटी। तो उसी दिन महर्षि नारद भी उनके यहां पधारे थे।
नारदजी के पूछने पर सावित्री ने कहा कि महाराज द्युमत्सेन जिनका राज्य अंधे होने के कारण हर लिया गया है। जो अंधे हो हैं और अपनी पत्नी सहित वनों की खाक छानते फिर रहे हैं, उन्हीं के इकलौते पुत्र सत्यवान की कीर्ति सुनकर सावित्री ने सत्यवान को अपने पति के रूप में वरण कर लिया है।
नारदजी ने सत्यवान तथा सावित्री के ग्रहों की गणना कर अश्वपति को बधाई दी तथा सत्यवान के गुणों की भूरि − भूरि प्रशंसा की। मगर एक दु:ख की बात भी नारद ने बताया कि जब सावित्री बारह वर्ष की होंगी। तब उनके पति सत्यवान की मृत्यु हो जाएगी।
नारदजी की बात सुनकर राजा अश्वपति का चेहरा पूरी तरह मुरझा गया। कारण यह बात उनकी एक मात्र कन्या से संबंधित थी। उन्होंने सावित्री से किसी अन्य को अपना पति चुनने की सलाह भी दी। परंतु सावित्री ने उत्तर दिया कि आर्य कन्या होने के नाते जब मैं सत्यवान का वरण कर चुकी हूं। तो अब वह अपने दिल में किसी और को स्थान नहीं दे सकती।
सावित्री ने नारदजी से सत्यवान की मृत्यु का समय ज्ञात कर लिया। इस तरह से दोनों का विवाह हो गया। सावित्री अपने श्वसुर परिवार के साथ जंगल में रहने लगी। नारदजी द्वारा बताये हुए दिन से तीन दिन पूर्व से ही सावित्री ने एक उपवास शुरू कर दिया।
नारदजी द्वारा निश्चित तिथि को जब सत्यवान लकड़ी काटने जंगल के लिए चला तो सास − श्वसुर से आज्ञा लेकर वह भी सत्यवान के साथ चल पड़ी। सत्यवान जंगल में पहुंचकर लकड़ी काटने के लिए वृक्ष पर चढ़ा ही था। वृक्ष पर चढ़ने के बाद ही उसके सिर में भयंकर पीड़ा होने लगी और वह नीचे उतर गया। सावित्री ने उसे वट के पेड़ के नीचे लिटा कर रखा। उसका सिर अपनी जांघ पर रख दिया। देखते ही देखते यमराज आए और उन्होंने विधि के विधान के बारे में सावित्री को बताया। फिर वह सत्यवान के आत्मा को अपने साथ लेकर यमलोक की ओर चल पड़े।
कहीं − कहीं ऐसा भी कहा जाता है कि वट वृक्ष के नीचे लेटे हुए सत्यवान को सर्प ने डंस लिया था। लेकिन यह बात सच नहीं है।
जब यह घटना हुई तब सावित्री ने बिना एक क्षण नष्ट किए वह यमराज के पीछे − पीछे भागने लगी। अपने पीछे आती हुई सावित्री को देख यमराज ने उसे लौट जाने को कहा। इस पर वह बोली महाराज जहां पति वहीं पत्नी। यही धर्म है, यही मर्यादा भी है।
सावित्री की धर्म निष्ठा से प्रसन्न होकर यमराज बोले कि पति के प्राणों के अतिरिक्त कुछ और मांग लो । सावित्री ने यमराज से सांस − श्वसुर के आंखों की ज्योति और दीर्घायु मांगी। यमराज तथास्तु कहकर आगे बढ़ गए। सावित्री यमराज का पीछा करती रही। यमराज ने अपने पीछे आती सावित्री को फिर से वापस लौट जाने को कहा। तो इस बार सावित्री बोली कि पति के बिना नारी के जीवन की कोई अस्तित्व नहीं होता।
यमराज ने सावित्री के पति व्रत धर्म से खुश होकर पुनः वरदान मांगने के लिए कहा। इस बार उसने अपने श्वसुर का राज्य वापस दिलाने की प्रार्थना की। यमराज फिर से तथास्तु कहकर आगे चल दिए। सावित्री अब भी यमराज के पीछे चलती रही । इस बार सावित्री ने यमराज से सौ पुत्रों की मां बनने का वरदान मांगा। तथास्तु कहकर जब यमराज आगे बढ़े तो सावित्री यम को देखती रही और बोली की आपने मुझे ऐसा वैसा नहीं बल्कि सौ पुत्रों का वरदान दिया है। जो पति के बिना संभव ही नहीं है। अब आपको अपना यह वरदान पूरा करना ही होगा।
सावित्री की धर्मिनष्ठा, ज्ञान, विवेक तथा पतिव्रत धर्म की बात जानकर यमराज ने सत्यवान के प्राणों को अपने पास से स्वतंत्र कर दिया। सावित्री सत्यवान के प्राण को यमराज द्वारा दिए गए काले चने रूपी आत्मा को अपने मुंह से फूंक मारकर सत्यवान के मुंह में पहुंचा दी।
फिर सावित्री वट वृक्ष की परिक्रमा करने लगी। तो सत्यवान जीवित हो उठा। प्रसन्नचित सावित्री अपने सास − श्वसुर के पास पहुंची तो उन्हें नेत्र ज्योति प्राप्त हो गई। इसके बाद उनका खोया हुआ राज्य भी उन्हें मिल गया। आगे चलकर सावित्री सौ पुत्रों की मां भी बनी। इस प्रकार चारों दिशाएं सावित्री के पतिव्रत धर्म के पालन की कीर्ति से गूंज उठा।